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हौसले की कमी से डरता हूँ | शाही शायरी
hausle ki kami se Darta hun

ग़ज़ल

हौसले की कमी से डरता हूँ

शौकत परदेसी

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हौसले की कमी से डरता हूँ
दूर की रौशनी से डरता हूँ

देख कर बस्तियों की वीरानी
अब तो हर आदमी से डरता हूँ

अक़्ल तारों को छू के आती है
और मैं चाँदनी से डरता हूँ

पहले डरता था तीरगी से मैं
और अब रौशनी से डरता हूँ

मेरी बेचारगी तो ये भी है
आप की दोस्ती से डरता हूँ

ये भी इक फाँस बिन न जाए कहीं
ग़म की आसूदगी से डरता हूँ

तेरी ज़ुल्फ़ों की छाँव में रह कर
आने वाली ख़ुशी से डरता हूँ

तुम तो तर्क-ए-वफ़ा भी कर लोगे
और में उस घड़ी से डरता हूँ

बे-ग़रज़ कौन है कि ऐ 'शौकत'
मैं ये कह दूँ उसी से डरता हूँ