हौसले और सिवा हो गए परवानों के
शो'ले अरमान बढ़ा देते हैं दीवानों के
यही आलम है अगर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना का
ढेर लग जाएँगे टूटे हुए पैमानों के
तौर बदला न अगर अहल-ए-चमन ने अपना
नज़र आएँगे मनाज़िर यहीं वीरानों के
आह-ए-मज़लूम अगर दिल से निकल जाएगी
ख़ाक पर ढेर नज़र आएँगे ऐवानों के
क़िस्सा-ए-सरमद-ओ-मंसूर न छेड़ ऐ हमदम
वर्ना जज़्बात भड़क उठेंगे दीवानों के
आप महफ़िल में न आते तो बहुत अच्छा था
आज तो होश उड़े जाते हैं फ़र्ज़ानों के
दौर-ए-हाज़िर की कशाकश का ये आलम है कि बस
हौसले पस्त हुए जाते हैं इंसानों के
क्या बिगाड़ेगी भला शोरिश-ए-तूफ़ाँ उस का
जिस ने रुख़ मोड़ दिए बारहा तूफ़ानों के
दोस्तो बातें बनाते हो सर-ए-साहिल क्या
आओ रुख़ मोड़ के देखें ज़रा तूफ़ानों के
उस से उम्मीद-ए-करम क्या करे कोई 'कशफ़ी'
काम आता हो जो अपनों के न बेगानों के

ग़ज़ल
हौसले और सिवा हो गए परवानों के
कशफ़ी लखनवी