हटा दो चेहरे से गर दुपट्टा तुम अपने ऐ लाला-फ़ाम आधा
तो हो ये साबित कि निकला अब्र-ए-सियह से माह-ए-तमाम आधा
हुआ तो है तेरे हिज्र में दिल हमारा जल कर कबाब साक़ी
कसर अगर है तो इतनी ही है कि पुख़्ता आधा है ख़ाम आधा
यहाँ तो दिल को मिरे जलाया वहाँ जलाएँगे जिस्म मेरा
ये हश्र पर क्यूँ उठा रखा है हुज़ूर ने इंतिक़ाम आधा
हमारी उल्फ़त का ज़िक्र सुन कर अदू निकाले भी शिक़ तो क्यूँ-कर
कि लफ़्ज़-शिक़ में भी तो ये शिक़ है कि है ये आशिक़ का नाम आधा
ये चरके दे दे के तू ने मुझ को जो नीम-जाँ कर रखा है नाहक़
हलाल कर डाल अब तो ज़ालिम हुआ है जीना हराम आधा
ये कैसी दरिया-दिली है साक़ी हवस भी दिल की हुई न पूरी
जो की इनायत भी तो अधूरी अगर दिया भी तो जाम आधा
नज़र जो पड़ जाए उस के क़ामत पे बस क़यामत ही आए 'अंजुम'
ज़मीं में गड़ जाए सर्व ख़जलत से उस की वक़्त-ए-ख़िराम आधा
ग़ज़ल
हटा दो चेहरे से गर दुपट्टा तुम अपने ऐ लाला-फ़ाम आधा
मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम