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हस्ती कोई ऐसी भी है इंसाँ के सिवा और | शाही शायरी
hasti koi aisi bhi hai insan ke siwa aur

ग़ज़ल

हस्ती कोई ऐसी भी है इंसाँ के सिवा और

नज्म आफ़न्दी

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हस्ती कोई ऐसी भी है इंसाँ के सिवा और
मज़हब का ख़ुदा और है मतलब का ख़ुदा और

फिर ठहर गया क़ाफ़िला-ए-दर्द सुना है
शायद कोई रस्ते में मिरी तरह गिरा और

इक जुर्रा-ए-आख़िर की कमी रह गई आख़िर
जितनी वो पिलाते गए आँखों ने कहा और

मिम्बर से बहुत फ़स्ल है मैदान-ए-अमल का
तक़रीर के मर्द और हैं मर्दान-ए-विग़ा और

अल्लाह गिला कर के मैं पचताया हूँ क्या क्या
जब ख़त्म हुई बात कहीं उस ने कहा और

क्या ज़ेर-ए-लब दोस्त है इज़हार-ए-जसारत
हक़ हो कि वो नाहक़ हो ज़रा लय तो बढ़ा और

दौलत का तो पहले ही गुनहगार था मुनइ'म
दौलत की मोहब्बत ने गुनहगार किया और

ये वहम सा होता है मुझे देख के उन को
सीरत का ख़ुदा और है सूरत का ख़ुदा और