EN اردو
हस्ती है जुदाई से उस की जब वस्ल हुआ तो कुछ भी नहीं | शाही शायरी
hasti hai judai se uski jab wasl hua to kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

हस्ती है जुदाई से उस की जब वस्ल हुआ तो कुछ भी नहीं

जमील मज़हरी

;

हस्ती है जुदाई से उस की जब वस्ल हुआ तो कुछ भी नहीं
दरिया में न था तो क़तरा था दरिया में मिला तो कुछ भी नहीं

इक शम्अ जली तो महफ़िल में हर सम्त उजाला फैल गया
क़ानून यही है फ़ितरत का परवाना जला तो कुछ भी नहीं

सैलाब में तिनके रक़्साँ थे मौजों से सफ़ीने लर्ज़ां थे
इक दरिया था सौ तूफ़ाँ थे दरिया न रहा तो कुछ भी नहीं

असलियत थी या धोका था इक फ़ित्ना-ए-रंगीं बरपा था
सौ जल्वे थे इक पर्दा था पर्दा न रहा तो कुछ भी नहीं

तूफ़ाँ भी था आँधी भी थी बाराँ भी था बिजली भी थी
आई जो घटा तो सब कुछ था बरसी जो घटा तो कुछ भी नहीं

फूलों से चमन आबाद भी थे दाम अपना लिए सय्याद भी थे
सब कुछ था 'जमील' इस गुलशन में बदली जो हवा तो कुछ भी नहीं