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हसरतो अब फिर वही तक़रीब होना चाहिए | शाही शायरी
hasrato ab phir wahi taqrib hona chahiye

ग़ज़ल

हसरतो अब फिर वही तक़रीब होना चाहिए

मुबारक शमीम

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हसरतो अब फिर वही तक़रीब होना चाहिए
फिर किसी दिन बैठ कर फ़ुर्सत से रोना चाहिए

जागते रहिए कहाँ तक उलझनों के नाम पर
वक़्त हाथ आए तो गहरी नींद सोना चाहिए

क्या ख़बर कब क़ैद-ए-बाम-ओ-दर से उक्ता जाए दिल
बस्तियों के दरमियाँ सहरा भी होना चाहिए

गुम-रही जिन रास्तों पर मुझ को बहलाती रही
मुझ से अब वो रास्ते मंसूब होना चाहिए

जाने क्या सोचे ज़माना उन के अश्कों पर 'शमीम'
हाँ न तुम को तंज़ के नश्तर चुभोना चाहिए