हसरत-ओ-उम्मीद का मातम रहा 
ये वो दिल है जो सदा पुर-ग़म रहा 
इक न इक मुझ पर सदा आलम रहा 
मैं कभी बे-जाँ कभी बे-दम रहा 
मेरी क़िस्मत की कजी का अक्स है 
ये जो बरहम गेसू-ए-पुर-ख़म रहा 
वो दिल-ए-ग़म-गीं है मेरा ग़म-पसंद 
ग़म के जाने का भी जिस को ग़म रहा 
दिल को हर-दम इक परेशानी रही 
ज़ुल्फ़-ए-जानाँ की तरह बरहम रहा 
वो नमक-अफ़्शानियाँ क़ातिल ने कीं 
ज़ख़्म-ए-दिल शर्मिंदा-ए-मरहम रहा 
बढ़ते बढ़ते हो गया नासूर दिल 
ख़ून का क़तरा जो दिल में जम रहा 
था फ़क़त इक ग़म मदार-ए-ज़िंदगी 
ग़म रहा दिल में तो वो भी कम रहा 
गिर्या-ओ-ज़ारी यही 'साक़ी' रही 
दिल की हसरत का सदा मातम रहा
        ग़ज़ल
हसरत-ओ-उम्मीद का मातम रहा
पंडित जवाहर नाथ साक़ी

