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हसरत-ओ-उम्मीद का मातम रहा | शाही शायरी
hasrat-o-ummid ka matam raha

ग़ज़ल

हसरत-ओ-उम्मीद का मातम रहा

पंडित जवाहर नाथ साक़ी

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हसरत-ओ-उम्मीद का मातम रहा
ये वो दिल है जो सदा पुर-ग़म रहा

इक न इक मुझ पर सदा आलम रहा
मैं कभी बे-जाँ कभी बे-दम रहा

मेरी क़िस्मत की कजी का अक्स है
ये जो बरहम गेसू-ए-पुर-ख़म रहा

वो दिल-ए-ग़म-गीं है मेरा ग़म-पसंद
ग़म के जाने का भी जिस को ग़म रहा

दिल को हर-दम इक परेशानी रही
ज़ुल्फ़-ए-जानाँ की तरह बरहम रहा

वो नमक-अफ़्शानियाँ क़ातिल ने कीं
ज़ख़्म-ए-दिल शर्मिंदा-ए-मरहम रहा

बढ़ते बढ़ते हो गया नासूर दिल
ख़ून का क़तरा जो दिल में जम रहा

था फ़क़त इक ग़म मदार-ए-ज़िंदगी
ग़म रहा दिल में तो वो भी कम रहा

गिर्या-ओ-ज़ारी यही 'साक़ी' रही
दिल की हसरत का सदा मातम रहा