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हसरत-ए-पाएमाल में गुम हैं | शाही शायरी
hasrat-e-paemal mein gum hain

ग़ज़ल

हसरत-ए-पाएमाल में गुम हैं

ख़्वाजा रियाज़ुद्दीन अतश

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हसरत-ए-पाएमाल में गुम हैं
हम फ़रेब-ए-ख़याल में गुम हैं

बुझती यादों के सुरमई साए
शाम-ए-रंज-ओ-मलाल में गुम हैं

हम हिसार-ए-वजूद के रह-रौ
गर्दिश-ए-ला-ज़वाल में गुम हैं

शम्अ इंसानियत के नूर-फ़रोग़
ज़ुल्मत-ए-इंफ़िआल में गुम हैं

वो अबद तक उरूज का परतव
हम अज़ल से ज़वाल में गुम हैं

अब भँवर में फँसा है माही-गीर
मछलियाँ जाल जाल में गुम हैं

लाला-ओ-गुल ये महर ओ माह ओ नुजूम
सब तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल में गुम हैं

शाम-ए-ग़म की हज़ार-हा शामें
मेरे जाम-ए-सिफ़ाल में गुम हैं

हिज्र की बे-पनाह रातों में
लोग शौक़-ए-विसाल में गुम हैं

कश्ती-ए-ज़ीस्त खे रहे हैं 'अतश'
बहर कार-ए-मुहाल में गुम हैं