हसरत-ए-दीद नहीं ज़ौक़-ए-तमाशा भी नहीं
काश पत्थर हों निगाहें मगर ऐसा भी नहीं
जब्र-ए-दोज़ख़ नहीं फ़िरदौस का नश्शा भी नहीं
ख़ुश हैं आराफ़ में हम और कोई खटका भी नहीं
अब किसी हूर में बाक़ी नहीं एहसास-ए-कशिश
मेरे सर पर किसी आसेब का साया भी नहीं
वो तो ऐसा भी है वैसा भी है कैसा है मगर?
क्या ग़ज़ब है कोई उस शोख़ के जैसा भी नहीं
जिस का हक़ था कि बने संग-ए-मलामत का हदफ़
ज़हे तज़हीक वो अब शहर में रुस्वा भी नहीं
ढूँढ कुछ और ही इबलाग़ की सूरत ऐ 'साज़'
शरह ओ तफ़्सीर नहीं रम्ज़ ओ किनाया भी नहीं
ग़ज़ल
हसरत-ए-दीद नहीं ज़ौक़-ए-तमाशा भी नहीं
अब्दुल अहद साज़