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हसरत-ए-आब-ओ-गिल दोबारा नहीं | शाही शायरी
hasrat-e-ab-o-gil dobara nahin

ग़ज़ल

हसरत-ए-आब-ओ-गिल दोबारा नहीं

महबूब ख़िज़ां

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हसरत-ए-आब-ओ-गिल दोबारा नहीं
देख दुनिया नहीं हमेशा नहीं

सोचने का कोई नतीजा नहीं
साया है ए'तिबार-ए-साया नहीं

सादा-कारी कई परत कई रंग
सादगी इक अदा-ए-सादा नहीं

अच्छे लगते हैं अच्छे लोग मुझे
जो समझते हैं उन से पर्दा नहीं

मैं कहीं और किस तरह जाऊँ
तू किसी और के अलावा नहीं

तुझ से भागे सुकून से भागे
सर-गराँ हैं कि दिल-गिरफ़्ता नहीं

रात ज़ंजीर सी क़दम-ब-क़दम
एक मंज़िल है कोई जादा नहीं

हुस्न तो हो चला ज़माना-शनास
इश्क़ का भी कोई भरोसा नहीं

सुनते हैं इक जज़ीरा है कि जहाँ
ये बला-ए-हवास-ए-ख़मसा नहीं

ऐ सितारो किसे पुकारते हो
इस ख़राबे में कोई ज़िंदा नहीं

चाँदनी खेलती है पानी से
इतनी बरसात है कि सब्ज़ा नहीं

कैसे बे-दर्द हैं कि जोड़ते हैं
नरम अल्फ़ाज़ जिन में रिश्ता नहीं

कहीं ईजाद महज़ बे-मफ़्हूम
कहीं मफ़्हूम है तो लहजा नहीं

कहीं तस्वीर नाक-नक़्शे बग़ैर
कहीं दीवार है दरीचा नहीं

उन से काग़ज़ में जान कैसे पड़े
जिन की आँखों में अक्स-ए-ताज़ा नहीं

दुश्मनी है तो दुश्मनी ही सही
मैं नहीं या दुकान-ए-शीशा नहीं

ख़ाक से किस ने उठते देखी है
वो क़यामत कि इस्तिआ'रा नहीं

कभी हर साँस में ज़मान-ओ-मकाँ
कभी बरसों में एक लम्हा नहीं

बेकली तार कसती जाए 'ख़िज़ाँ'
हसरत-ए-आब-ओ-गिल दोबारा नहीं