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हसीनों के तबस्सुम का तक़ाज़ा और ही कुछ है | शाही शायरी
hasinon ke tabassum ka taqaza aur hi kuchh hai

ग़ज़ल

हसीनों के तबस्सुम का तक़ाज़ा और ही कुछ है

सेहर इश्क़ाबादी

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हसीनों के तबस्सुम का तक़ाज़ा और ही कुछ है
मगर कलियों के खिलने का नतीजा और ही कुछ है

निगाहें मुश्तबा हैं मेरी पाकीज़ा निगाहों पर
मिरे मासूम दिल पर उन को धोका और ही कुछ है

हसीनों से मोहब्बत है उन्हीं पर जान देता हूँ
मिरा शेवा है ये लेकिन ज़माना और ही कुछ है

भला क्या होश आएगा बुझेगी क्या लगी दिल की
ये आँचल से हवा देने का मंशा और ही कुछ है

ज़बान ओ अक़्ल ओ दिल तारीफ़ से जिस की हैं बेगाने
उसे सज्दा जो करता है वो बंदा और ही कुछ है

तुझे हर शय में देखा 'सेहर' ने हर शय में पहचाना
मगर फिर भी है इक पर्दा वो पर्दा और ही कुछ है