हसीनों के गले से लगती है ज़ंजीर सोने की
नज़र आती है क्या चमकी हुई तक़दीर सोने की
न दिल आता है क़ाबू में न नींद आती है आँखों में
शब-ए-फ़ुर्क़त में क्यूँ कर बन पड़े तदबीर सोने की
यहाँ बेदारियों से ख़ून-ए-दिल आँखों में आता है
गुलाबी करती है आँखों को वाँ तासीर सोने की
बहुत बेचैन हूँ नींद आ रही है रात जाती है
ख़ुदा के वास्ते जल्द अब करो तदबीर सोने की
ये ज़र्दा चीज़ है जो हर जगह है बाइ'स-ए-शौकत
सुनी है आलम-ए-बाला में भी ता'मीर सोने की
ज़रूरत क्या है रुकने की मिरे दिल से निकलता रह
हवस मुझ को नहीं ऐ नाला-ए-शब-गीर सोने की
छपर-खट याँ जो सोने की बनाई इस से क्या हासिल
करो ऐ ग़ाफ़िलो कुछ क़ब्र में तदबीर सोने की
ग़ज़ल
हसीनों के गले से लगती है ज़ंजीर सोने की
अकबर इलाहाबादी