हसीन रातों जमील तारों की याद सी रह गई है बाक़ी
कुछ अपनी उजड़ी हुई बहारों की याद सी रह गई है बाक़ी
हर एक महफ़िल पड़ी है सूनी तमाम मेले बिछड़ चुके हैं
सितमगरों की सितम-शिआरों की याद सी रह गई है बाक़ी
ग़म-ए-वफ़ा कहने सुनने वाले कहाँ गए अहल-ए-दिल न जाने
तुम्हारी उल्फ़त के राज़-दारों की याद सी रह गई है बाक़ी
वो शाम से आरज़ू सहर की वो बे-कली रात रात भर की
उन आश्ना आश्ना सितारों की याद सी रह गई है बाक़ी
उधर भी अहद-ए-वफ़ा के टुकड़े खटक के पहलू में सो चुके हैं
यहाँ भी टूटे हुए सहारों की याद सी रह गई है बाक़ी
गिला नहीं 'सैफ़' बे-कसी का किसी का ग़म कौन पूछता है
यही बहुत है कि ग़म-गुसारों की याद सी रह गई है बाक़ी
ग़ज़ल
हसीन रातों जमील तारों की याद सी रह गई है बाक़ी
सैफ़ुद्दीन सैफ़