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हश्र मिरा ब-ख़ैर हो मुझ को बना रहे हो तुम | शाही शायरी
hashr mera ba-KHair ho mujhko bana rahe ho tum

ग़ज़ल

हश्र मिरा ब-ख़ैर हो मुझ को बना रहे हो तुम

मीम हसन लतीफ़ी

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हश्र मिरा ब-ख़ैर हो मुझ को बना रहे हो तुम
ख़ाक में जान डाल कर ख़ाक उड़ा रहे हो तुम

इबरत-ए-ज़ौक़-ए-ज़हर ख़ंदा-ए-ज़ौक़-ए-ज़बूनी-ए-दो-चंद
शौक़ बढ़ा के पै-ब-पै शमएँ बुझा रहे हो तुम

मेरे अदम में भी बहम था सितम-ए-अज़ल का ग़म
पहले ही मैं नज़ार था और सता रहे हो तुम

सोज़ तो सोज़ है मगर साज़ भी सोज़ हो न जाए
साज़ को आज सोज़ के सामने ला रहे हो तुम

दर्ख़ुर-ए-सज्दा है अभी और अभी नंग-ए-ज़िंदगी
इश्क़-ए-वफ़ा-सरिश्त को ख़ूब रुला रहे हो तुम

तोहमत-ए-हस्त भी रवा हासिल-ए-नीस्त भी बजा
हाँ मिरी सरनविश्त के दाग़ मिटा रहे हो तुम

ख़ंदा-ए-ज़ेर-ए-लब भी है गिर्या-ए-बे-सबब भी है
बे-हमा-ओ-बहर-ए-अदा रंग जमा रहे हो तुम