हश्र में और ही आसार नज़र आते हैं
मेरे हामी शह-ए-अबरार नज़र आते हैं
दिल-ए-बेताब को ये कह के सँभाला शब-ए-ग़म
ठहर अब सुब्ह के आसार नज़र आते हैं
क़ल्ब-ए-मोमिन की अजब शान है अल्लाह अल्लाह
सर झुकाता हूँ तो अनवार नज़र आते हैं
शब-ए-असरा न रहा एक भी पर्दा हाइल
साफ़ हक़ के उन्हें दीदार नज़र आते हैं
दस्त-ए-क़ुदरत ने बनाई है वो सूरत तेरी
जिस के कौनैन ख़रीदार नज़र आते हैं
छुप नहीं सकते हैं उस पर्दा नशीं के आशिक़
हम ने देखे हैं सर-ए-दार नज़र आते हैं
शाफ़े-ए-हश्र शफ़ाअत पे कमर-बस्ता है
आज हर सम्त गुनहगार नज़र आते हैं
फ़ैज़-ए-साक़ी से है मय-ख़ाना-ए-हस्ती आबाद
आज मय-ख़्वार ही मय-ख़्वार नज़र आते हैं
अपने बातिन को न देखा कभी ज़ाहिद तू ने
हम तो मय-ख़्वार हैं मय-ख़्वार नज़र आते हैं
अब्र आते हैं जो फ़ुर्क़त में तिरी ऐ साक़ी
सूरत-ए-दीदा-ए-ख़ूँबार नज़र आते हैं
ग़ुंचा-ए-दिल जो तिरे हिज्र में अफ़्सुर्दा है
बाग़ में फूल मुझे ख़ार नज़र आते हैं
मरज़-ए-इश्क़ की हालत कोई हम से पूछे
वो तो अच्छे हैं जो बीमार नज़र आते हैं
हाथ ख़ाली है मगर दिल तो ग़नी है अपना
चश्म-ए-मख़्लूक़ में ज़रदार नज़र आते हैं
छूट जाएँगे मुसीबत से अब इंशा-अल्लाह
हिज्र में मौत के आसार नज़र आते हैं
डगमगाते हैं क़दम राह-ए-वफ़ा में मेरे
मरहले इश्क़ के दुश्वार नज़र आते हैं
इस क़दर महव रहे हिर्स-ओ-हवा में 'रासिख़'
अब तो सूरत से गुनहगार नज़र आते हैं

ग़ज़ल
हश्र में और ही आसार नज़र आते हैं
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़