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हस्ब-ए-मामूल आए हैं शाख़ों में फूल अब के बरस | शाही शायरी
hasb-e-mamul aae hain shaKHon mein phul ab ke baras

ग़ज़ल

हस्ब-ए-मामूल आए हैं शाख़ों में फूल अब के बरस

इक़बाल माहिर

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हस्ब-ए-मामूल आए हैं शाख़ों में फूल अब के बरस
साया-अफ़गन हैं मगर उन पर बबूल अब के बरस

इस तरह बदला मोहब्बत का उसूल अब के बरस
हम भी हैं मग़्मूम तुम भी हो मलूल अब के बरस

झोंपड़ों से कट के चाँदी के बगूले चल दिए
बाला बाला उड़ गई सोने की धूल अब के बरस

इतने ग़म इतने मसाइल इतने उनवान-ए-सुख़न
है जुदा हर शेर की शान-ए-नुज़ूल अब के बरस

कट गईं सदियाँ इसी मौहूम सी उम्मीद पर
आसमाँ से होगा रहमत का नुज़ूल अब के बरस

मिट गई तहरीर-ए-क़िस्मत उठ गए अंजुम-शनास
अक़्ल ख़ुद करती है तदबीर-ए-हुसूल अब के बरस

इन्क़िलाब-आसार है रफ़्तार माह-ओ-साल की
कुछ तो बदलेगा ज़माने का उसूल अब के बरस