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हस्ब-ए-फ़रमान-ए-अमीर-ए-क़ाफ़िला चलते रहे | शाही शायरी
hasb-e-farman-e-amir-e-qafila chalte rahe

ग़ज़ल

हस्ब-ए-फ़रमान-ए-अमीर-ए-क़ाफ़िला चलते रहे

सय्यद नसीर शाह

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हस्ब-ए-फ़रमान-ए-अमीर-ए-क़ाफ़िला चलते रहे
पा-ब-जौलाँ दीदा-ओ-लब-दोख़्ता चलते रहे

बे-बसीरत मंज़िलें गर्द-ए-सफ़र होती रहीं
और हम बे-मक़्सद-ओ-बे-मुद्दआ' चलते रहे

फ़स्ल-ए-गुल की चाप थी इस तब-ए-नाज़ुक पर गिराँ
था सफ़र ख़ुशबू का ग़ुंचे बे-सदा चलते रहे

काजली रातों में सूरज के हवाले सो गए
इक़्तिबास अपने लहू से ले लिया चलते रहे

सू-ए-मंज़िल पीठ थी आवारगी जारी रही
फ़ासला हर गाम पर बढ़ता रहा चलते रहे

जब ये देखा पैरहन का तार तक बाक़ी नहीं
कर के ज़ेब-ए-जिस्म ज़ख़्मों की क़बा चलते रहे

आप क्या हम ख़ुद भी सुन पाए न दिल की धड़कनें
अपने सीने पर क़दम रख कर सदा चलते रहे