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हर्ज़ा-सराई बैन-ए-सुख़न और बढ़ गई | शाही शायरी
harza-sarai bain-e-suKHan aur baDh gai

ग़ज़ल

हर्ज़ा-सराई बैन-ए-सुख़न और बढ़ गई

जुनैद अख़्तर

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हर्ज़ा-सराई बैन-ए-सुख़न और बढ़ गई
सस्ता हुआ तो क़ीमत-ए-फ़न और बढ़ गई

जाना कि दोस्त ही था मसीहा के रूप में
दिल पर रखा जो हाथ जलन और बढ़ गई

जाने कहाँ से आई थी कल रात को हवा
खिड़की खुली तो घर में घुटन और बढ़ गई

पहले ही हाथ-पाँव हसीं कम न थे मगर
रंग-ए-हिना से उन की फबन और बढ़ गई

यौम-ए-जज़ा में फ़ित्ना-ए-महशर की ख़ैर हो
पहले ही जो थी सर्व-बदन और बढ़ गई

सहरा को देखने का तो बचपन से शौक़ था
दिल को लगा लिया तो लगन और बढ़ गई

वो तो मिरे मनाने से 'अख़्तर' बिगड़ गए
माथे पे एक गहरी शिकन और बढ़ गई