हरीस हो न जहाँ में न अपना जी भटका
ज़बाँ बिगड़ गई गर उस को आ गया चटका
जो शाहराह गया कुछ नहीं हुआ खटका
भटक रहा है मुसाफ़िर हुआ जो ओघट का
क़बा पहनते जो बरहम हुआ वो चुस्त-क़बा
दिया है चीन-ए-जबीं ने भी साथ सिलवट का
यहाँ भी इश्वा-ए-रा'ना खड़ी लगाता है
वो बहर-ए-हुस्न हुआ आश्ना जो करवट का
हमारी वज़्अ से आशुफ़्ता हो गया मजनूँ
हमें जो नज्द के बन में जिन्हों ने दे पटका
नज़र हुई है परेशाँ हिजाब में है वो रुख़
तिलिस्म खुल नहीं सकता है उन के घुँघट का
किया है ज़ुल्फ़-ओ-रुख़-ओ-चश्म ने जो सर-गश्ता
निकल के घर से मिरा दिल तिराहे में भटका
किसे है ताब जो देखे निगाह-ए-क़हर-आलूद
कोई उधर को चला और कोई इधर सटका
हमारे अश्क-ए-मुसलसल ज़रा नहीं रुकते
ये घाट ख़ूब रवाँ हो रहा है पनघट का
हमारा रंग-ए-तबीई है सुल्ह-ए-कुल मशरब
पसंद हम को नहीं क़ाफ़िया भी झंझट का
कहेंगे 'साक़ी'-ए-सरमस्त शेर-ए-तर क्या हम
हमारे हिस्से में आया है जाम तलछट का
ग़ज़ल
हरीस हो न जहाँ में न अपना जी भटका
पंडित जवाहर नाथ साक़ी