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हरीम-ए-नाज़ से आता है बहरा-वर कोई | शाही शायरी
harim-e-naz se aata hai bahra-war koi

ग़ज़ल

हरीम-ए-नाज़ से आता है बहरा-वर कोई

मर्ग़ूब असर फ़ातमी

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हरीम-ए-नाज़ से आता है बहरा-वर कोई
दिल आईना पे लिए नक़्श-ए-फ़िल-हजर कोई

हिसार-ए-दर्द की ऊँचाई बढ़ती जाती है
ख़ुशी की आँधियाँ आ कर बनाएँ दर कोई

पड़ा है यादों के हुजरे में क़ुफ़्ल मुद्दत से
हनूज़ देता है दस्तक सी मो'तबर कोई

चमकती राह तो नज़रों से है अभी ओझल
चराग़-ए-चर्ख़ की मिलती नहीं ख़बर कोई

ये शाम डाले हुए तन पे सुरमई चादर
गिला करेगी सियह-शब से मुख़्तसर कोई

तमाम ख़्वाहिशें ख़ाशाक में हुईं तब्दील
घड़ी में शो'ला न कर दे कहीं शरर कोई

तिरी ज़बान से लिपटी है चाश्नी-ए-हवस
कहाँ से आए तिरी बात में 'असर' कोई