हरीम-ए-लफ़्ज़ में किस दर्जा बे-अदब निकला
जिसे नजीब समझते थे कम-नसब निकला
सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर
किस एहतिमाम से परवर-दिगार-ए-शब निकला
हमारी गर्मी-ए-गुफ़्तार भी रही बे-सूद
किसी की चुप का भी मतलब अजब अजब निकला
बहम हुए भी मगर दिल की वहशतें न गईं
विसाल में भी दिलों का ग़ुबार कब निकला
अभी उठा भी नहीं था किसी का दस्त-ए-करम
कि सारा शहर लिए कासा-ए-तलब निकला
ग़ज़ल
हरीम-ए-लफ़्ज़ में किस दर्जा बे-अदब निकला
इफ़्तिख़ार आरिफ़