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हरीम-ए-दिल से निकल आँख के सराब में आ | शाही शायरी
harim-e-dil se nikal aankh ke sarab mein aa

ग़ज़ल

हरीम-ए-दिल से निकल आँख के सराब में आ

अफ़ीफ़ सिराज

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हरीम-ए-दिल से निकल आँख के सराब में आ
मिरी तरह कभी मैदान-ए-इज़्तिराब में आ

पयम्बरों की ज़बानी कही सुनी हम ने
वो कह रहा था कि मेरे भी इंतिख़ाब में आ

सुना है आज अमारी फ़लक से उतरेगी
मुझे भी नींद गर आए तो मेरे ख़्वाब में आ

तुझे ख़ुदाई का दा'वा है गर तो कम से कम
ज़मीन पर कोई दिन रंग-ए-बू-तुराब में आ

अभी हैं सारे सवालात तिश्ना-काम मिरे
उठा के काँधे पे मीना मिरे जवाब में आ

उतार दी हैं भँवर में भी कश्तियाँ हम ने
समुंदरों में अगर है तो इस हबाब में आ