EN اردو
हर्फ़ तुम अपनी नज़ाकत पे न लाना हरगिज़ | शाही शायरी
harf tum apni nazakat pe na lana hargiz

ग़ज़ल

हर्फ़ तुम अपनी नज़ाकत पे न लाना हरगिज़

मीर मेहदी मजरूह

;

हर्फ़ तुम अपनी नज़ाकत पे न लाना हरगिज़
हाथ बेदाद-ओ-सितम से न उठाना हरगिज़

तुम भी चोरी को यक़ीं है न कहोगे अच्छा
अब हमें देख के आँखें न चुराना हरगिज़

इश्क़ है एक मगर आफ़त-ए-नौ है हर-दम
ये वो मज़मूँ है कि होगा न पुराना हरगिज़

यही अंदाज़ तो हैं दिल के उड़ा लेने के
उन की तुम नीची निगाहों पे न जाना हरगिज़

सबब-ए-क़त्ल-ए-मोहब्बत है अगर ऐ ज़ालिम
तो मिरा जुर्म किसी को न बताना हरगिज़

दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता का हो राज़ न इफ़्शा ऐ चश्म
अश्क-ए-गुल-रंग का टपका न लगाना हरगिज़

हूँ तुनक-ज़र्फ़ न झेलूँगा शराब-ए-पुर-ज़ोर
पर्दा यकबार न चेहरे से उठाना हरगिज़

हम से बीमार भी जाँ-बर कहीं होते हैं मसीह
तुम यहाँ आ के न तकलीफ़ उठाना हरगिज़

जिंस-ए-नायाब के होते हैं हज़ारों गाहक
तुम पता अपना किसी को न बताना हरगिज़

मैं तो क्या उस से तो मूसा भी न सर-बर आए
इम्तिहानन हमें जल्वा न दिखाना हरगिज़

जो चला तीर-ए-सितम दिल से वो गुज़रा ऐ चर्ख़
तेरा ख़ाली न गया कोई निशाना हरगिज़

ज़िक्र बर्बादी-ए-देहली का सुना कर हमदम
नेश्तर ज़ख़्म-ए-कुहन पर न लगाना हरगिज़

आब-ए-रफ़्ता नहीं फिर बहर में फिर कर आता
देहली आबाद हो ये ध्यान न लाना हरगिज़

वो तो बाक़ी ही नहीं जिन से कि देहली थी मुराद
धोका अब नाम पे देहली के न खाना हरगिज़

गेती-अफ़रोज़ अगर हज़रत-ए-नय्यर रहते
इतना तारीक तो होता न ज़माना हरगिज़

अब तो ये शहर है इक क़ालिब-ए-बे-जाँ हमदम
कुछ यहाँ रहने की ख़ुशियाँ न मनाना हरगिज़

दर-ए-मय-ख़ाना हुआ बंद सदा ये है बुलंद
याँ हरीफ़ान-ए-क़दह-ख़्वार न आना हरगिज़

अल्लाह अल्लाह वो नव्वाब-ए-उलाई के कलाम
जिन से रंगीं नहीं बुलबुल का तराना हरगिज़

तू तो है 'अनवर'-ओ-'मैकश' की जुदाई का निशाँ
दिल-ए-पुर-दर्द से ऐ दाग़ न जाना हरगिज़

सौत-ए-बुलबुल तरफ़-अंगेज़ सही पर हमदम
दर्द फ़र्सूदा दिलों को न सुनाना हरगिज़

मैं हूँ इक मजमा-ए-अहबाब का बिछड़ा गुलचीं
मुझ को गुल-दस्ता-ए-रंगीं न दिखाना हरगिज़

जम्अ' है मजमा-ए-अहबाब फ़ज़ा में तेरी
ऐ तसव्वुर ये मुरक़्क़ा न मिटाना हरगिज़

दिल में हैं हसरत-ओ-अंदोह के अम्बार लगे
इतना यकजा न कहीं होगा ख़ज़ाना हरगिज़

साक़ी-ए-बज़्म तिरी तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल के निसार
दुर्द-ए-मय का भी इधर जाम न लाना हरगिज़

क़हर लाएँगे ये तालेअ' जो ज़रा भी चेते
ऐ फ़लक ख़्वाब से उन को न जगाना हरगिज़

महफ़िल-ए-ऐश से गर हज़ हो उठाना ऐ दोस्त
हम से आज़ुर्दा-दिलों को न बुलाना हरगिज़

दार-ए-फ़ानी में न कर फ़िक्र-ए-क़याम ऐ नादाँ
गुज़र-ए-सैल है याँ घर न बनाना हरगिज़

जिन के ऐवान थे हम-पल्ला-ए-क़स्र-ए-क़ैसर
उन की मिलता नहीं क़ब्रों का ठिकाना हरगिज़

वो गए दिन जो चमन-ज़ार में दिल लगता था
सच है यकसाँ नहीं रहता है ज़माना हरगिज़

हम-सफ़ीरान-ए-चमन सब हुए गर्म-ए-पर्वाज़
अब ख़ुश आता नहीं गुलज़ार में जाना हरगिज़

ज़ग़न-ओ-ज़ाग़ की गुलशन में सदा है हर सू
मुर्ग़-ए-ख़ुश-नग़्मा न आवाज़ सुनाना हरगिज़

क़स्र-ए-हाली के हवाली में ज़रा तुम 'मजरूह'
अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद न बनाना हरगिज़