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हर्फ़-ए-बे-मतलब की मैं ने किस क़दर तफ़्सीर की | शाही शायरी
harf-e-be-matlab ki maine kis qadar tafsir ki

ग़ज़ल

हर्फ़-ए-बे-मतलब की मैं ने किस क़दर तफ़्सीर की

सलीम शाहिद

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हर्फ़-ए-बे-मतलब की मैं ने किस क़दर तफ़्सीर की
शक्ल पहचानी गई फिर भी न इस तस्वीर की

सुब्ह का दरवाज़ा खुलते ही चलो गुलशन की सम्त
रंग उड़ जाएगा फूलों का अगर ताख़ीर की

क़ैद मेरे जिस्म के अंदर कोई वहशी न हो
साँस लेता हूँ तो आती है सदा ज़ंजीर की

तेरे चेहरे पर जो लिक्खा था मिरी आँखों में है
हिफ़्ज़ है मुझ को इबारत अब भी उस तहरीर की

तुझ को देखा भी नहीं लेकिन तेरी ख़्वाहिश भी है
रेत की दीवार सत्ह-ए-आब पर ता'मीर की

घर की वीरानी दर-ओ-दीवार के अंदर रही
मैं ने अपने दर्द को मोहलत न दी तश्हीर की

मैं ने लौह-ए-अर्श पर लिक्खा हुआ सब पढ़ लिया
ला मिरी आँखों में मिट्टी दे मिरी तक़दीर की

मेहर-ओ-मह लगते हैं अपने जिस्म के ज़र्रे मुझे
सोचता हूँ कौन सी मंज़िल है ये तस्ख़ीर की

लुट चुके वो हाथ शाहिद जिन से माँगी थी दुआ
हाँ अभी तक है फ़ज़ाओं में महक तासीर की