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हरे मौसम खिलेंगे सोना बन के ख़ाक बदलेगी | शाही शायरी
hare mausam khilenge sona ban ke KHak badlegi

ग़ज़ल

हरे मौसम खिलेंगे सोना बन के ख़ाक बदलेगी

ज़काउद्दीन शायाँ

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हरे मौसम खिलेंगे सोना बन के ख़ाक बदलेगी
कहाँ तक ये ज़मीं आख़िर नई पोशाक बदलेगी

हसीं मासूम होंटों पर मोहब्बत के सबक़ ताज़ा
कभी तो आदमी की फ़ितरत-ए-चालाक बदलेगी

रवाँ है आब-ओ-ख़ूँ सर पत्थरों को फोड़ने दीजे
नदी सैलाब की रौ में ख़स-ओ-ख़ाशाक बदलेगी

सलीक़ा ज़िंदगी की वहशतों को मिलने वाला है
क़बा उस की यक़ीनन दामन-ए-सद-चाक बदलेगी

छबकती शबनमीं आँखों में नज्म-ओ-गुल के अफ़्साने
नई करवट अभी शायद हमारी ख़ाक बदलेगी

धुले कपड़ों पे दाग़-ए-ख़ुशबू रंग-ए-ज़िन्दगी रौशन
तिरी क़ुर्बत से दिल की सर-ज़मीन-ए-पाक बदलेगी