हरे दरख़्त का शाख़ों से रिश्ता टूट गया 
हुआ चली तो गुलाबों से रिश्ता टूट गया 
कहाँ हैं अब वो महकते हुए हसीं मंज़र 
खुली जो आँख तो ख़्वाबों से रिश्ता टूट गया 
ज़रा सी देर में बीमार-ए-ग़म हुआ रुख़्सत 
पलक झपकते ही लोगों से रिश्ता टूट गया 
गुलाब तितली धनक रौशनी करन जुगनू 
हर एक शय का निगाहों से रिश्ता टूट गया 
उठी जो सहन में दीवार इख़्तिलाफ़ बढ़े 
ज़मीं के वास्ते अपनों से रिश्ता टूट गया 
किताब-ए-ज़ीस्त का हर सफ़्हा सादा है 'नय्यर' 
क़लम की नोक का लफ़्ज़ों से रिश्ता टूट गया
        ग़ज़ल
हरे दरख़्त का शाख़ों से रिश्ता टूट गया
अज़हर नैयर

