हरम को शैख़ मत जा है बुत-ए-दिल-ख़्वाह सूरत में
अगर है मर्द-ए-मअ'नी देख ले अल्लाह सूरत में
नज़र कर उस की टुक नैरंगियों पर चश्म-ए-हैरत से
कहीं गुल है कहीं काँटा कहीं है काह सूरत में
सनम की सत्र-ए-अबरू कातिब-ए-क़ुदरत ने लिखी है
कलीद-ए-इल्म-ए-मअ'नी है ये बिस्मिल्लाह सूरत में
सुबू-ओ-जाम पर कम-ज़र्फ़ करते हैं नज़र वर्ना
बने हैं एक मिट्टी के गदा ओ शाह सूरत में
मिरा वो तिफ़्ल-ए-अबजद-ख़्वाँ पढ़े क्यूँकर न अब हिज्जे
बग़ैर इस क़ाएदे के हो सके कब राह सूरत में
जुदा दीवार से कब ताक़ है कोई बताओ तो
दिखाई दे है पुर-अहवाल को दो इक माह सूरत में
कर अपने दिल को सैक़ल ऐ सिकंदर ता हो ये रौशन
सफ़ा से आइने के कब ख़लल है आह सूरत में
गया होगा तरफ़ काबा की जो महरम नहीं उस से
कि हाजी उस के आमद रफ़्त की है राह सूरत में
'नसीर' उस की ज़क़न में बंद है वो यूसुफ़-ए-कनआँ
निकलती है अज़ीज़ो देख लो क्या चाह सूरत में
ग़ज़ल
हरम को शैख़ मत जा है बुत-ए-दिल-ख़्वाह सूरत में
शाह नसीर