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हरम है क्या चीज़ दैर क्या है किसी पे मेरी नज़र नहीं है | शाही शायरी
haram hai kya chiz dair kya hai kisi pe meri nazar nahin hai

ग़ज़ल

हरम है क्या चीज़ दैर क्या है किसी पे मेरी नज़र नहीं है

फ़ना बुलंदशहरी

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हरम है क्या चीज़ दैर क्या है किसी पे मेरी नज़र नहीं है
मैं तेरे जल्वों में खो गया हूँ मुझे अब अपनी ख़बर नहीं है

जिन्हें है डर राह-ए-इम्तिहाँ से उन्हें अभी ये ख़बर नहीं है
अगर करम उन का राहबर हो कठिन कोई रहगुज़र नहीं है

ब-शौक़-ए-सज्दा चले हैं लेकिन अजीब मस्लक है आशिक़ों का
वहाँ इबादत हराम ठहरी जहाँ तिरा संग-ए-दर नहीं है

तिरी तलब तेरी आरज़ू में नहीं मुझे होश ज़िंदगी का
झुका हूँ यूँ तेरे आस्ताँ पर कि मुझ को एहसास-ए-सर नहीं है

तिरी नवाज़िश मिरी मसर्रत मिरी तबाही जलाल तेरा
कहीं नहीं है मिरा ठिकाना जो तेरी सीधी नज़र नहीं है

जहाँ भी है कोई मिटने वाला तिरी इनायत के साए में है
बना लिया जिस को तू ने अपना जहाँ में वो दर-ब-दर नहीं है

हर इक जगह तू ही जल्वा-गर है वो बुत-कदा हो या तूर-ए-सीना
निगाह-ए-दुनिया है कोर बातिन तिरी तजल्ली किधर नहीं है

यहीं पे जीना यहीं पे मरना यहीं है दुनिया यहीं है उक़्बा
'फ़ना' दर-ए-यार के अलावा कहीं हमारा गुज़र नहीं है