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हरा शजर न सही ख़ुश्क घास रहने दे | शाही शायरी
hara shajar na sahi KHushk ghas rahne de

ग़ज़ल

हरा शजर न सही ख़ुश्क घास रहने दे

सुल्तान अख़्तर

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हरा शजर न सही ख़ुश्क घास रहने दे
ज़मीं के जिस्म पे कोई लिबास रहने दे

कहीं न राह में सूरज का क़हर टूट पड़े
तू अपनी याद मिरे आस-पास रहने दे

बिखर चुके हैं समाअ'त के तल्ख़ शीराज़े
अब अपने नरम लबों की मिठास रहने दे

वो देख ढह चुकीं वहम-ओ-गुमाँ की दीवारें
यक़ीन चीख़ रहा है क़यास रहने दे

बड़ा लतीफ़ अँधेरा है रौशनी न जला
उरूस-ए-शब को अभी ख़ुश-लिबास रहने दे

तसव्वुरात के लम्हों की क़द्र कर प्यारे
ज़रा सी देर तो ख़ुद को उदास रहने दे