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हरा-भरा था चमन में शजर अकेला था | शाही शायरी
hara-bhara tha chaman mein shajar akela tha

ग़ज़ल

हरा-भरा था चमन में शजर अकेला था

इंतिख़ाब अालम

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हरा-भरा था चमन में शजर अकेला था
शजर पे बर्ग बहुत थे समर अकेला था

बक़ा-ए-नूर फ़लक पर भी हो गई मुश्किल
उमड रही थीं घटाएँ क़मर अकेला था

यही तो एक तमाशा पस-ए-तमाशा था
तमाश-बीं थे बहुत दीदा-वर अकेला था

रफ़ाक़तों से ये तन्हाई कम नहीं होती
शरीक-ए-बज़्म तो था मैं मगर अकेला था

गुनाह-ए-इश्क़ की कैसी सज़ा मिली हम को
कि संग-बार ज़्यादा थे सर अकेला था

किया था हम ने सफ़र साथ साथ यूँ 'आलम'
कि मैं अकेला मिरा हम-सफ़र अकेला था