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हर ज़ेहन रिवायात का मक़्तल न हुआ था | शाही शायरी
har zehn riwayat ka maqtal na hua tha

ग़ज़ल

हर ज़ेहन रिवायात का मक़्तल न हुआ था

नूर मोहम्मद यास

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हर ज़ेहन रिवायात का मक़्तल न हुआ था
वो आज हुआ है जो यहाँ कल न हुआ था

क्यूँ दौड़ पड़ी ख़ल्क़ उस इक शख़्स के पीछे
क्या शहर में आगे कोई पागल न हुआ था

थे बंद मकानों की तरह लोग पुर-असरार
इक बाब-ए-सुख़न था जो मुक़फ़्फ़ल न हुआ था

दिल ख़ून किया तुम ने तो पानी हुए जज़्बे
ये मसअला मुझ से तो कभी हल न हुआ था

तारीक था अपनी ही नज़र का कोई पहलू
सूरज तो कभी आँख से ओझल न हुआ था

यूँ उस की शुजाअत हुई मश्कूक पस-ए-जंग
तन्हा वो सिपाही था जो घाएल न हुआ था

कब सफ़्हा-ए-हस्ती पे थी क़ाएम कोई सूरत
वो नक़्श था बाक़ी जो मुकम्मल न हुआ था

थी दिन की खुली धूप मिरे ख़ून की प्यासी
सर मेरा चराग़-ए-शब-ए-मक़्तल न हुआ था