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हर ज़र्रा उभर के कह रहा है | शाही शायरी
har zarra ubhar ke kah raha hai

ग़ज़ल

हर ज़र्रा उभर के कह रहा है

सूफ़ी तबस्सुम

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हर ज़र्रा उभर के कह रहा है
आ देख इधर यहाँ ख़ुदा है

इस चर्ख़ को पीस डालता मैं
अफ़सोस कि यार बे-वफ़ा है

मरता तिरी कज-अदाइयों पर
लेकिन वो ख़ुमार उतर गया है

मैं मेहर-ओ-वफ़ा की इंतिहा हूँ
तू जौर-ओ-जफ़ा की इंतिहा है

उश्शाक़ की रूह काँपती है
जब आइना कोई देखता है

ये कुफ़्र-नवाज़ी-ए-'तबस्सुम'
काफ़िर किसी बुत पे मुब्तला है