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हर उ'ज़्व-ए-बदन एक से है एक तिरा ख़ूब | शाही शायरी
har uzw-e-badan ek se hai ek tera KHub

ग़ज़ल

हर उ'ज़्व-ए-बदन एक से है एक तिरा ख़ूब

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल

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हर उ'ज़्व-ए-बदन एक से है एक तिरा ख़ूब
सीने की सफ़ाई से है चेहरे की सफ़ा ख़ूब

क़ासिद के बदन पर अलिफ़-ए-ज़ख़्म लगे हैं
ख़त का मिरे लिक्खा ये जवाब आप ने क्या ख़ूब

आगाह नहीं है कोई अहवाल से मेरे
जो मुझ पे गुज़रती है वो जाने है ख़ुदा ख़ूब

बन बन के दहन हल्क़ा-ए-गेसु-ए-मुसलसल
लूटे है तिरे बोसा-ए-आरिज़ का मज़ा ख़ूब

अबतर हुआ जो शे'र कहा ज़ुल्फ़ का तेरी
बाँधा कोई मज़मून हिना का तो बँधा ख़ूब

मदफ़ूँ किया तेरी ही गली में उसे आख़िर
पाई तिरे आशिक़ ने पस-ए-मर्ग भी जा ख़ूब

दो-चार ही शब माह तो रहता है नहुफ़्ता
मुद्दत हूई देखा नहीं वो माह छुपा ख़ूब

शर्बत के एवज़ सूदा-ए-अल्मास पिलाया
की आप ने बीमार-ए-मोहब्बत की दवा ख़ूब

रुक रुक के जो दम निकले है मज़बूह का तेरे
क्या ख़ंजर-ए-खूँ-ख़्वार तिरा तेज़ न था ख़ूब

मग़रूर न होना करम-ए-यार पे 'ग़ाफ़िल'
पाएगा अभी दिल के लगाने की सज़ा ख़ूब