हर उक़्दा-ए-तक़दीर जहाँ खोल रही है
हाँ ध्यान से सुनना ये सदी बोल रही है
अंगड़ाइयाँ लेती है तमन्ना तिरी दिल में
शीशे में परी नाज़ के पर तौल रही है
रह रह के खनक जाती है साक़ी ये शब-ए-माह
इक जाम पिला ख़ुंकी-ए-शब बोल रही है
दिल तंग है शब को कफ़न-ए-नूर पिन्हा के
वो सुब्ह जो ग़ुंचों की गिरह खोल रही है
शबनम की दमक है कि शब-ए-माह की देवी
मोती सर-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ रोल रही है
रखती है मशिय्यत हद-ए-पर्वाज़ जहाँ भी
इंसान की हिम्मत वहीं पर तोल रही है
पहलू में शब-ए-तार के है कौन सी दुनिया
जिस के लिए आग़ोश सहर खोल रही है
हर आन वो रग रग में चटकती हुई कलियाँ
उस शोख़ की इक एक अदा बोल रही है

ग़ज़ल
हर उक़्दा-ए-तक़दीर जहाँ खोल रही है
फ़िराक़ गोरखपुरी