हर उजाला नई सहर तो नहीं
रात की उम्र रात-भर तो नहीं
आदमी चंद गाम बढ़ न सके
ज़िंदगी इतनी मुख़्तसर तो नहीं
इक उजाला सा साथ रहता है
सोचता हूँ तिरी नज़र तो नहीं
एक हंगाम है बयाबाँ में
कोई आमादा-ए-सफ़र तो नहीं
वक़्त बे-शक अज़ीम है लेकिन
मुझ से तुझ से अज़ीम-तर तो नहीं
दूर कुछ साए से हैं सहरा में
राह-ए-गुम-कर्दा हम-सफ़र तो नहीं
आप जो भी कहें वो सच 'अजमल'
आप अब इतने मो'तबर तो नहीं
ग़ज़ल
हर उजाला नई सहर तो नहीं
अजमल अजमली