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हर तरफ़ शोर है 'मानी' चमन-आराई है | शाही शायरी
har taraf shor hai mani chaman-arai hai

ग़ज़ल

हर तरफ़ शोर है 'मानी' चमन-आराई है

मानी जायसी

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हर तरफ़ शोर है 'मानी' चमन-आराई है
तू भी फिर दर्स-ए-फ़ुग़ाँ दे कि बहार आई है

बे-तलब सब ने यहाँ दाद-ए-सितम पाई है
हश्र है नाला न करने में भी रुस्वाई है

वाक़ई कुछ नहीं या कुछ नज़र आता ही नहीं
दिल-ए-महजूर ये ज़ुल्मत है कि तन्हाई है

मुद्दआ' मेरे जुनूँ का तो है तहसीन-ए-बहार
और दुनिया ये समझती है कि सौदाई है

आस्ताँ जज़्ब-ए-जबीं है मगर ऐ फ़ितरत-ए-इश्क़
मैं हूँ और हौसला-ए-नासिया-फ़र्साई है

आ कि इमदाद-ए-तसव्वुर से भी महरूम हूँ अब
और दिल सज्दा-ए-आख़िर का तमन्नाई है

सब रहे सिर्फ़ बदलता रहा महफ़िल का निज़ाम
तू है और सिलसिला-ए-अंजुमन-आराई है

सारे आलम की रक़ाबत का जुनूँ है मुझ को
और बुनियाद-ए-जुनूँ आप की यकताई है

तू भी है उन के लिए मंज़र-ए-इबरत 'मानी'
जिन का यूँ दीदा-ए-हसरत से तमाशाई है