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हर तरफ़ शोर-ए-फ़ुग़ाँ है कोई सुनता ही नहीं | शाही शायरी
har taraf shor-e-fughan hai koi sunta hi nahin

ग़ज़ल

हर तरफ़ शोर-ए-फ़ुग़ाँ है कोई सुनता ही नहीं

अब्बास रिज़वी

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हर तरफ़ शोर-ए-फ़ुग़ाँ है कोई सुनता ही नहीं
क़ाफ़िला है कि रवाँ है कोई सुनता ही नहीं

इक सदा पूछती रहती है कोई ज़िंदा है
मैं कहे जाता हूँ हाँ है कोई सुनता ही नहीं

मैं जो चुप था हमा-तन-गोश थी बस्ती सारी
अब मिरे मुँह में ज़बाँ है कोई सुनता ही नहीं

देखने वाले तो इस शहर में यूँ भी कम थे
अब समाअत भी गिराँ है कोई सुनता ही नहीं

एक हंगामा कि इस दिल में बपा रहता था
अब कराँ-ता-ब-कराँ है कोई सुनता ही नहीं

क्या सितम है कि मिरे शहर में मेरी आवाज़
जैसे आवाज़-ए-सगाँ है कोई सुनता ही नहीं