''हर तमन्ना दिल से रुख़्सत हो गई''
लीजिए फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत हो गई
कौन समझाए दर-ओ-दीवार को
जिन को तेरे दीद की लत हो गई
हम नहीं अब बारिशों के मुंतज़िर
अब हमें सहरा की आदत हो गई
सरहदों की बस्तियों सा दिल हुआ
वहशतों की जिन को आदत हो गई
साहिलों पर क्या घरोंदों का वजूद
टूटना ही इन की क़िस्मत हो गई
राहतों की भी तलब बाक़ी नहीं
दर्द से ऐसे मोहब्बत हो गई
ग़ज़ल
''हर तमन्ना दिल से रुख़्सत हो गई''
नीना सहर