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हर तल्ख़ हक़ीक़त का इज़हार भी करना है | शाही शायरी
har talKH haqiqat ka izhaar bhi karna hai

ग़ज़ल

हर तल्ख़ हक़ीक़त का इज़हार भी करना है

रूही कंजाही

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हर तल्ख़ हक़ीक़त का इज़हार भी करना है
दुनिया में मोहब्बत का प्रचार भी करना है

बे-ख़्वाबी-ए-पैहम से बेज़ार भी करना है
बस्ती को किसी सूरत बेदार भी करना है

दुश्मन के निशाने पर कब तक यूँही बैठेंगे
ख़ुद को भी बचाना है और वार भी करना है

शफ़्फ़ाफ़ भी रखना है गुलशन की फ़ज़ाओं को
हर बर्ग-ए-गुल-ए-तर को तलवार भी करना है

काँटों से उलझने की ख़्वाहिश भी नहीं रखते
फूलों से मोहब्बत का इज़हार भी करना है

इस जुर्म की नौइय्यत मालूम नहीं क्या है
इंकार भी करना है इक़रार भी करना है

होने भी नहीं देना बोहरान कोई पैदा
मोक़िफ़ पे हमें अपने इसरार भी करना है

तय लम्हों में कर डालें सदियों का सफ़र लेकिन
इस राह को ऐ 'रूही' हमवार भी करना है