हर शे'र से मेरे तिरा पैकर निकल आए
मंज़र को हटा कर पस-ए-मंज़र निकल आए
ये कौन निकल आया यहाँ सैर-ए-चमन को
शाख़ों से महकते हुए ज़ेवर निकल आए
इस बार बुलावे में किसी माह-जबीं के
वो ज़ोर-तलब था कि मिरे पर निकल आए
ये वस्ल सिकंदर के मुक़द्दर में नहीं था
हम कैसे मुक़द्दर के सिकंदर निकल आए
शब आई तो ज़ुल्मत की मज़म्मत में सितारे
दीवार-ए-फ़लक तोड़ के बाहर निकल आए
उस बात का आँधी को गुमाँ भी नहीं होगा
लो एक थी फ़ानूस बहत्तर निकल आए
इल्हाम का मौसम उतर आता है ज़मीं पर
बस्ती में अगर एक सुख़नवर निकल आए
उन संग-ज़नों में कोई अपना भी था शायद
जो ढेर से ये क़ीमती पत्थर निकल आए
पिंदार-ए-हुनर ज़ौक़-ए-नज़र शिद्दत-ए-इख़्लास
दुनिया के मुक़ाबिल मिरे लश्कर निकल आए
कुछ सोच के उम्मीद-ए-वफ़ा बाँधते 'अंजुम'
चश्मे की जगह कैसे समुंदर निकल आए
ग़ज़ल
हर शे'र से मेरे तिरा पैकर निकल आए
अंजुम ख़लीक़