हर शे'र को गुलाब किया क्या ग़लत किया
हाँ तेरा इंतिख़ाब किया क्या ग़लत किया
रौंदा नहीं कभी किसी जुगनू को ज़ेर-ए-पा
ज़र्रे को आफ़्ताब किया क्या ग़लत किया
लब पर हर एक शख़्स के थी मस्लहत की मोहर
हम ने ही कुछ ख़िताब किया क्या ग़लत किया
जो मावरा-ए-ज़ेहन-ए-फ़क़ीहाँ था वो गुनाह
उस का भी इर्तिकाब किया क्या ग़लत किया
कब तक पिसेंगे ज़ुल्म की चक्की में मेरे लोग
एलान-ए-इंक़लाब किया क्या ग़लत किया
जो दुश्मन-ए-अवाम थे नफ़रत उन्हीं से की
और इश्क़ बे-हिसाब किया क्या ग़लत किया
इस आस में कि सब को मयस्सर हो सुख की नींद
क़ुर्बां हर एक ख़्वाब किया क्या ग़लत किया
आया अदब बरा-ए-अदब का ख़याल जब
लिखने का बंद बाब किया क्या ग़लत किया
'ख़ालिद' रहे न सब की तरह बस क़लम क़ुली
ज़ुल्मत को बे-नक़ाब किया क्या ग़लत किया
ग़ज़ल
हर शे'र को गुलाब किया क्या ग़लत किया
ख़ालिद यूसुफ़