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हर शक्ल रफ़्ता रफ़्ता अंजान हो गई है | शाही शायरी
har shakl rafta rafta anjaan ho gai hai

ग़ज़ल

हर शक्ल रफ़्ता रफ़्ता अंजान हो गई है

मनमोहन तल्ख़

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हर शक्ल रफ़्ता रफ़्ता अंजान हो गई है
मुश्किल थी जो भी जिस की आसान हो गई है

कहना न कुछ किसी से चुप चुप से तकते रहना
आख़िर यही हमारी पहचान हो गई है

इक शख़्स भोला-भाला बस्ती की पूछता है
कैसे कहूँ कि बस्ती वीरान हो गई है

जो था रहा न कुछ भी जो है न जाने क्या है
सो अब यहाँ से रुख़्सत आसान हो गई है

पहले थे हम ही हैराँ हम सा नहीं है कोई
और अब तो सारी दुनिया हैरान हो गई है

ऐसी चहल-पहल थी मुश्किल से लौटते थे
यादों की वो गली अब सुनसान हो गई है

बस 'तल्ख़' की रविश थी अब तक बग़ैर उनवाँ
अब इस रविश का दूरी उनवान हो गई है