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हर शय वही नहीं है जो परछाइयों में है | शाही शायरी
har shai wahi nahin hai jo parchhaiyon mein hai

ग़ज़ल

हर शय वही नहीं है जो परछाइयों में है

नामी अंसारी

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हर शय वही नहीं है जो परछाइयों में है
इस के सिवा कुछ और भी गहराइयों में है

आईना जिस से टूट के बे-आब हो गया
वो अक्स-ए-बे-नवा भी तमाशाइयों में है

फ़ुर्सत मिले तो मैं भी कोई मर्सिया लिखूँ
इक दश्त-ए-कर्बला मिरी तन्हाइयों में है

किस शहर में तलाश करें रिश्ता-ए-वफ़ा
सुनते तो हैं पुरानी शनासाइयों में है

दरिया के ज़ोर-ओ-शोर पे बातें हज़ार हों
पानी मगर वही है जो गहराइयों में है

घुल जाए शे'र में तो ज़मीं आसमाँ बने
वो हुस्न-ए-ला-ज़वाल जो सच्चाइयों में है

बेकार उस को अहल-ए-वफ़ा में गिना गया
'नामी' कहाँ से आप के शैदाइयों में है