हर सम्त परेशाँ तिरी आमद के क़रीने
धोके दिए क्या क्या हमें बाद-ए-सहरी ने
हर मंजिल-ए-ग़ुरबत पे गुमाँ होता है घर का
बहलाया है हर गाम बहुत दर-ब-दरी ने
थे बज़्म में सब दूद-ए-सर-ए-बज़्म से शादाँ
बे-कार जलाया हमें रौशन-नज़री ने
मय-ख़ाने में आजिज़ हुए आज़ुर्दा-दिली से
मस्जिद का न रक्खा हमें आशुफ़्ता-सरी ने
ये जामा-ए-सद-चाक बदल लेने में क्या था
मोहलत ही न दी 'फ़ैज़' कभी बख़िया-गरी ने
ग़ज़ल
हर सम्त परेशाँ तिरी आमद के क़रीने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़