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हर साँस में ख़ुद अपने न होने का गुमाँ था | शाही शायरी
har sans mein KHud apne na hone ka guman tha

ग़ज़ल

हर साँस में ख़ुद अपने न होने का गुमाँ था

अनवर साबरी

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हर साँस में ख़ुद अपने न होने का गुमाँ था
वो सामने आए तो मुझे होश कहाँ था

करती हैं उलट-फेर यूँही उन की निगाहें
काबा है वहीं आज सनम-ख़ाना जहाँ था

तक़सीर-ए-नज़र देखने वालों की है वर्ना
उन का कोई जल्वा न अयाँ था न निहाँ था

बदली जो ज़रा चश्म-ए-मशीयत कोई दम को
हर सम्त बपा महशर-ए-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ था

लपका है बगूला सा अभी उन की तरफ़ को
शायद किसी मजबूर की आहों का धुआँ था

'अनवर' मिरे काम आई क़यामत में निदामत
रहमत का तक़ाज़ा मिरा हर अश्क-ए-रवाँ था