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हर साँस है शरह-ए-नाकामी फिर इश्क़ को रुस्वा कौन करे | शाही शायरी
har sans hai sharh-e-nakaami phir ishq ko ruswa kaun kare

ग़ज़ल

हर साँस है शरह-ए-नाकामी फिर इश्क़ को रुस्वा कौन करे

दिल शाहजहाँपुरी

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हर साँस है शरह-ए-नाकामी फिर इश्क़ को रुस्वा कौन करे
तकमील-ए-वफ़ा है मिट जाना जीने की तमन्ना कौन करे

जो ग़ाफ़िल थे हुशियार हुए जो सोते थे बेदार हुए
जिस क़ौम की फ़ितरत मुर्दा हो उस क़ौम को ज़िंदा कौन करे

हर सुब्ह कटी हर शाम कटी बेदाद सही उफ़्ताद सही
अंजाम-ए-मोहब्बत जब ये है इस जिंस का सौदा कौन करे

हैराँ हैं निगाहें दिल बे-ख़ुद महजूब है हुस्न-ए-बे-परवा
अब अर्ज़-ए-तमन्ना किस से हो अब अर्ज़-ए-तमन्ना कौन करे

फ़ितरत है अज़ल से पाबंदी कुछ क़द्र नहीं आज़ादी की
नज़रों में हैं दिलकश ज़ंजीरें रुख़ जानिब-ए-सहरा कौन करे