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हर रोज़ नया हश्र सर-ए-राहगुज़र था | शाही शायरी
har roz naya hashr sar-e-rahguzar tha

ग़ज़ल

हर रोज़ नया हश्र सर-ए-राहगुज़र था

मोहसिन ज़ैदी

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हर रोज़ नया हश्र सर-ए-राहगुज़र था
अब तक का सफ़र एक क़यामत का सफ़र था

अंदाज़ा-ए-हालात था पहले ही से मुझ को
दरपेश जो अब है वो मिरे पेश-ए-नज़र था

सुनते हैं कि आबाद यहाँ था कोई कुम्बा
आसार भी कहते हैं यहाँ पर कोई घर था

तय हम ने किया सारा सफ़र यक-ओ-तन्हा
जुज़ गर्द-ए-सफ़र कोई न हमराह-ए-सफ़र था

सद हैफ़ कई लोग गए जाँ से मिरे साथ
क़ातिल को तो मतलूब फ़क़त मेरा ही सर था

मेरी ही तरह जाँ से गुज़र कर चले आते
कुछ इस से ज़ियादा तो न रस्ते में ख़तर था

रहता था कभी मेरी निगाहों में शब-ओ-रोज़
इक वक़्त था जब वो मिरा महबूब-ए-नज़र था

क्या वो कोई झोंका था नसीम-ए-सहरी का
या रहगुज़र-ए-ख़्वाब पे ख़ुश्बू का सफ़र था

हम जा के कहाँ बादिया-पैमा हुए 'मोहसिन'
जिस दश्त में सब्ज़ा न कहीं कोई शजर था