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हर रोज़ ही दिन भर के झमेलों से निमट के | शाही शायरी
har roz hi din bhar ke jhamelon se nimaT ke

ग़ज़ल

हर रोज़ ही दिन भर के झमेलों से निमट के

बशीर मुंज़िर

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हर रोज़ ही दिन भर के झमेलों से निमट के
रो लेते हैं हम रात के आँचल से लिपट के

हम कौन हैं क्यूँ बैठे हैं यूँ राहगुज़र पर
पूछा न किसी इक भी मुसाफ़िर ने पलट के

क्या क्या थे मिरे दिल के सहीफ़े में मज़ामीं
देखे न किसी ने मिरे औराक़ उलट के

फिरते रहे आवारा ख़यालात की सूरत
क्या चीज़ थी हम जिस के लिए दहर में भटके

शब करवटें लेते तो न गुज़रे कभी 'मुंज़िर'
सो जाओ मियाँ दर्द की बाहोँ में सिमट के