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हर रस्म पर नज़र को झुकाते हुए चले | शाही शायरी
har rasm par nazar ko jhukate hue chale

ग़ज़ल

हर रस्म पर नज़र को झुकाते हुए चले

तलअत इशारत

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हर रस्म पर नज़र को झुकाते हुए चले
हर इख़्तियार अपना मिटाते हुए चले

कुछ उन पे ए'तिमाद है कुछ अपनी ज़ात पर
ज़ोम-ए-फ़रेब यूँही निभाते हुए चले

कितनी हिकायतें कि ज़बाँ तक न आ सकीं
ज़ंजीर-ए-हर्फ़ उन पे सजाते हुए चले

उन के मज़ाक़-ए-दीद से पाई न पाई दाद
फिर भी हरीम-ए-शौक़ बसाते हुए चले

जो राह जल गई थी हक़ीक़त की आँच से
ख़्वाबों के फूल उस पे बिछाते हुए चले