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हर रहगुज़र में काहकशाँ छोड़ जाऊँगा | शाही शायरी
har rahguzar mein kahkashan chhoD jaunga

ग़ज़ल

हर रहगुज़र में काहकशाँ छोड़ जाऊँगा

अमीर क़ज़लबाश

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हर रहगुज़र में काहकशाँ छोड़ जाऊँगा
ज़िंदा हूँ ज़िंदगी के निशाँ छोड़ जाऊँगा

मैं भी तो आज़माऊँगा उस के ख़ुलूस को
उस के लबों पे अपनी फ़ुग़ाँ छोड़ जाऊँगा

मेरी तरह उसे भी कोई जुस्तुजू रहे
अज़-राह-ए-एहतियात गुमाँ छोड़ जाऊँगा

मेरा भी और कोई नहीं है तिरे सिवा
ऐ शाम-ए-ग़म तुझे मैं कहाँ छोड़ जाऊँगा

रौशन रहूँगा बन के मैं इक शोला-ए-नवा
सहरा के आस-पास अज़ाँ छोड़ जाऊँगा

फिर आ के बस गए हैं बराबर के घर में लोग
अब फिर 'अमीर' मैं ये मकाँ छोड़ जाऊँगा